Tuesday, September 28, 2010

"आम आदमी की दौलत पर खेल" -

जी मे आए है जिसके, नोचा करे है तुझको !

यह मुल्क भी, गुज़रे ज़माने की दिल्ली हो गई है !!

क्या खेल चल रहें हैं , अपनी ज़मीन पर !

खुद ही हँसते हैं, और अपनी खिल्ली हो गई है !!

हर सिम्त बद इन्तजामी का, झांकता है चेहरा !

रेशम के कर के पैबंद, निजाम के तसल्ली हो गई है !!

सोचे बड़े सयाने , थे लोग हम लगाए !

ये क्या हुआ के सूरते सब, शेखचिल्ली हो गई है !!

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